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लगभग 600 वर्षों का इतिहास संजोए खड़ा है बौसी मेला भगवान मधुसूदन के मान्यताओं से जुड़ी हुई है, यह बौसी मेला बिहार का दूसरा सबसे बड़ा मेला है जो मधुसूदन भगवान की आस्था से जुड़ी हुई है।


बौंसी(बांका)।मनोज कुमार मिश्र का रिपोर्ट


पौराणिक मान्यता के अनुसार 14 जनवरी मकर संक्रांति के अवसर पर मंदार क्षेत्र में बॉसी नामक जगह में बहुत ही विशाल मेला लगता है जो सोनपुर के बाद दूसरा सबसे बड़ा मेला माना जाता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में मकर संक्रांति को काफी महत्वपूर्ण माना गया है । हिंदू धर्म में मकर को

पवित्र जीव माना जाता है। उल्लेखनीय है कि देवताओं का आविर्भाव उत्तरी गोलार्ध से ही हुआ है इस कारण सूर्य के उत्तरायण होने एवं उनके मकर राशि में प्रवेश करने से मकर संक्रांत को अत्यंत पवित्र माना जाता है। पृथ्वी की परिक्रमा दो उत्तरायण और दक्षिणायन में विभक्त है यह कालखंड

शिशिर से बसंत आगमन का सूचक भी है, भगवान मधुसूदन कामधेनु मंदिर के पास स्थित प्राचीन भक्तों को दर्शन देते हुए बृहद विष्णु पुराण में वर्णित दुर्लभ को सार्थक बनाने में काफी महत्वपूर्ण है। मंदारं शिखरं दृष्टया दृष्टया वा मधुसूदन ।
कामधेनु मुखम दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते।। कहते हैं जो प्राणी इस दिन मंदार शिखर भगवान मधुसूदन एवं कामधेनु गो का एक साथ दर्शन कर लेते हैं उसका इस नश्वर संसार में पुनर्जन्म नहीं होता है। कितना दुर्लभ अमृत फल मिलता है मंदार क्षेत्र में मकर संक्रांति महापर्व का। सिद्ध ऋषि-मुनियों ने इसे महातीर्थ की संज्ञा दी है। मंदार क्षेत्र का मेला काफी प्राचीन है यहां पर पापहरणी सरोवर में स्नान करने का विशेष महत्व है। इस दिन श्रद्धालु भोग लगाते हैं और उनके नामों से जोड़कर जाने जाते हैं । तभी तो विष्णु मधुसूदन शिव त्रिपुरारी दुर्गा महालक्ष्मी काली चामुंडेश्वरी कहलाते हैं ।मंदार पर्वत और भगवान मधुसूदन की गाथा से जुड़े हुए इतिहास में कई आलेख मिलते हैं । इस संबंध में शोथ लेखक मनोज कुमार मिश्र ने बताया कि इस पर्वत के कई नाम है मंदार के अलावे महेंद्र गिरी ककुद्भान सुमेरू मंदर इस तरह से कई नाम है सुमेरु आदि । कहते हैं इस पर्वत का नाम धौम्य ऋषि के पुत्र मंदार के नाम से विख्यात हुआ जिसकी एक छोटी कथा इसमें संलग्न कर रहे हैं। पूर्व काल में अंग जनपद के ऋषि और औरव की पुत्री समिका का विवाह धौम्य ऋषि के पुत्र मंदार के साथ हुआ था दोनों भ्रमण पर भागीरथी के दक्षिण स्थित मंदार के मनोहर वन आए थे जहां पर कई मुनियों के पर्ण कुटी आश्रम थे। एक दिन मंदार और समिका की नजर भुसुंडि ऋषि पर पड़ी जिनकी नाक सूॅड के समान थी। यह देखकर दोनों हासिल परिहास करने लगे जिस पर ऋषि भुसुंडि क्रोधित हो गए और दोनों को श्राप दे दिया, कहा तुम दोनों तत्काल मंदार और शमी का नाम के वृक्ष बन जाओ। इस घटना की जानकारी जब दोनों के पिता को हुइ तो ऋषि मुनि के पास आकर इसके उद्धार का उपाय जानने के लिए प्रार्थना करने लगे। उसने कहा कि जिस शूंड को देखकर दोनों ने परिहास किया है उसी शुंडवान श्री गणेश ही मुक्ति का उपाय बता सकते हैं। श्री गणेश की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उनके पूजा शुरू कर दी तत्पश्चात गणेश जी प्रकट हुए और दोनों को श्राप मुक्त करते हुए यह वरदान दिया कि आज से इस पर्वत को मंदार के नाम से जाना जाएगा और इस क्षेत्र में आंक का वृक्ष एवं समीक वृक्ष का उपयोग शिव शक्ति की पूजा में महत्वपूर्ण माना जाएगा । मंदार शिखर पर जो मंदिर है एक बड़ा और एक छोटा। बड़े मंदिर में 6 पद चिन्ह है हिंदू सनातनी श्रद्धालु इन 6 पदों में से दो को विष्णु दो को लक्ष्मी दो को सरस्वती की आस्था से जोड़कर मंदार शिखर का आरोहण कहते हैं संस्कृत के विद्वान कवि कालिदास ने अपने कुमारसंभवम् पुस्तक में लिखा था । शिखर मंदिर में विष्णु चरण होने की मान्यता से जुड़ी प्रमुख कथा यह है कि मधुर कटप के बाद से पूर्व दोनों ने भगवान से वर मांगी थी कि मेरे मुक्ति के बाद मेरे सिर के ऊपर आपके श्री चरण का स्पर्श होता रहे । यही वह कृपा से मधु कैटभ के सिर पर मंदार को रखा गया। जिस पर अपना चरण चिन्ह अंकित कर दिया गया। ठीक ऐसे ही जैसे गया में गयासुर को दावे रखने के लिए विष्णुपद की महत्ता है इसी काल में मंदार शिखर पर 6 पदों की पूजा होने लगी त्रेता युग में श्री राम के द्वारा भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई।

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