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सर्वकालीन महान “महात्मा गौतम बुद्ध
( रक्षाबंधन या रक्खासुत्तबंध दिवस: के सुअवसर पर )

(गाजियाबाद) निर्मल शर्मा के कलम से

_संसार के धर्म-प्रचारकों और अपने धर्म चलाने वालों में एक दैदिप्यमान  प्रकाश स्तम्भ की तरह आकाश में अपना दिव्य प्रकाश ढाई हजार वर्षों से समस्त संसार में बिखेरने वाले एक ही महापुरुष हुए हैं,जिन्होंने अपने शिष्यों या अनुयाइयों को वैचारिक रूप से पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की । वे हैं “भगवान गौतम बुद्ध “। एक बार वे अपने भिक्षु संघ के साथ भ्रमण करते हुए श्रावस्ती के पास कोशल जनपद के केसपुत्रीय नामक गाँव के एक उद्यान में ठहरे हुए थे । उस क्षेत्र के लोगों को जब पता चला कि उनके आसपास ही भगवान बुद्ध रूके हुए हैं,तो  उस गाँव व आसपास के बहुत से लोग भगवान बुद्ध के पास उनके विचार को सुनने पहुँच गये ।  उन लोगों ने भगवान बुद्ध से कहा कि “उनके गाँव में बहुत से महात्मा और आचार्य लोग आते रहते हैं ,वे सभी लोग अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते रहते हैं। हमें सभी की बातें अच्छी लगती हैं ,परन्तु हमें ये बात समझ में नहीं आती कि हम इनमें किसको सही माने और किसको गलत ?”भगवान बुद्ध ने उन सभी लोगों को संबोधित करते हुए अपना उपदेश देना शुरू किया,उन्होंने कहा कि, “आप लोग कोई बात इसलिए मत मानो कि उसे बहुत लोग मानते हैं या उसे मानने की परम्परा है या वह पुराणों या धर्मग्रंथों में लिखी है या वह बहुत बड़े आचार्य या विख्यात गुरूजी कह रहे हैं या वह बात मैं स्वयं कह रहा हूँ। मेरी कही हुई बात को भी अपनी तर्क की कसौटी पर कसे बिना मत मानो। ” उन्होंने ने आगे कहा,”तापात् ,छेदात् ,निकसात् सुवर्णमिव सम्परीक्ष्यमदवचःगृहणात् न च गौरवात् “मतलब जैसे सोने को तपाकर,छेदकर,कसकर ग्रहण करते हैं वैसे ही मेरे वचनों का भी परीक्षण करो,कहा।यह बहुत महत्वपूर्ण घोषणा है । आज भगवान गौतम बुद्ध के महानिर्वाण के लगभग 2500 साल दो हजार पाँच सौ साल बाद भी,आज के आधुनिक युग के भी कथित बड़े -बड़े धर्म उपदेशक ,आचार्य लोग भी अपने प्रवचनों के दौरान अपनी सभा में उपस्थित दर्शकों या श्रोताओं से तर्क और बहस करने से बिल्कुल मना कर देते हैं और अपने भक्तों या श्रोताओं से केवल भक्ति-भावना से मतलब अंधभक्ति से प्रेरित कथित आस्था से ही उनके प्रवचनों को सुनने का आग्रह करते हैं । हालांकि  उनका प्रवचन सत्संग के नाम पर चल रहा होता है । सत्संग का मतलब ही है,जिसमें सैकड़ों लोगों के विचारों का मंथन हो,लेकिन कथित आधुनिक सत्संग में कथित गुरूजी,कथावाचक जी अकेले ही अपनी कथित ज्ञान और भक्ति के नाम पर अंधविश्वासी, कूपमंडूकताभरी,मूर्खतापूर्ण, कपोलकल्पित प्रवचनों की घंटों घूँट पिलाते रहते हैं,जिसकी तार्किकता,यथार्थ व वैज्ञानिकता से दूर-दूर का नाता नहीं होता है !_*
             *_यहाँ तक कि भगवान कृष्ण ने भी गीता में एक जगह यहाँ तक कह दिया कि “सर्वं धर्मम् परित्यज मामेकं शरणम् व्रज।अहम त्वां सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। ” अर्थात- तुम सभी धर्मों को छोड़कर मेरे शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूँगा,चिन्ता मत करो।इसके विपरीत भगवान बुद्ध ने कहा “हे आनन्द अन्त शरणा,अन्त दीपा बिहरथ अर्थात तुम अपने प्रदीप या दीपक स्वयं बनो,अपनी शरण ग्रहण करो। मतलब किसी पर आश्रित मत बनों,उसकी कृपा पर निर्भर मत बनो,स्वावलम्बी बनो, स्वाभिमानी बनो,अपने कर्मों से स्वयं को और समस्त संसार को दीपक की तरह आलोकित करो। “एक बार भगवान बुद्ध अपने सबसे प्रिय शिष्य आनन्द के साथ नदी किनारे-किनारे कहीं जा रहे थे,आनन्द ने पूछा, “तथागत इस दुनिया में बहुत से लोग पूजा क्यों करते हैं ? “भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया ” पूजा करते होंगे,परन्तु पूजा निरर्थक है। ” भगवान बुद्ध ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ,”आनन्द यदि तुम्हें यह नदी पार करनी हो तो क्या तुम नदी के किनारे बैठकर इसकी पूजा करने लगो तो तुम इस नदी को पार कर जाओगे ?, उससे नदी का दूसरा किनारा तुम्हारे पास आ जायेगा ? हर्गिज नहीं नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लेना ही पड़ेगा या तैरकर जाना पड़ेगा । ” भगवान बुद्ध संसार के ऐसे महामानव हैं,जिन्होंने किसी “चमत्कार या अलौकिक शक्तियों ” से भ्रमित करने का प्रयास कभी नहीं किया जैसा कि दुनिया के अन्य लगभग सभी  “धर्म प्रचारकों ” ने किया । उन्होंने बहुत ही विनम्रता और शालीनता के साथ अपने कार्य को किया। एक बार वे अपने प्रधान धम्म सेनापति “सारिपुत्त ” के साथ जंगल से होकर कहीं जा रहे थे । सारिपुत्त ने अचानक भगवान गौतम बुद्ध की प्रशंसा करते हुए कह बैठे कि “भगवन ! इस दुनिया में आप जैसा ज्ञानी न तो वर्तमान में है,न भविष्य में कभी पैदा होगा। ” इस पर भगवान बुद्ध ने बिना कोई समय गँवाए सारिपुत्त से कहा,कि ,”भंते ! क्या आपने अपनी आँखों से देख लिया है कि मेरे जैसा ज्ञानी इस दुनिया में कोई,कहीं नहीं है ? ” और उन्होंने जंगल से मुट्ठी भर सूखी पत्तियों को उठाकर कहा कि ” मेरा ज्ञान बस इतना ही है ,परन्तु संसार का ज्ञान इस जंगल के सारे पत्तों से भी ज्यादे है, अनन्त है। “ऐसे महान,विनम्र, अंधविश्वास,पाखण्ड और रूढ़िवाद की जड़ काटने वाले,वैज्ञानिक और बुद्धिवादी सोच के महामानव थे भगवान गौतम बुद्ध ।भगवान बुद्ध ने जाति,वर्ण,अस्पृश्यता, मानवीय विषमता,शोषण, धार्मिक यज्ञों में कथित देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के पाखंड के नाम पर बलि के नाम पर निरीह और निरपराध पशुओं के बध और पाखण्डों का खुलकर विरोध किया । इसी बात को लक्षित करके उन्होंने अपने संघ में प्रकृति जैसी चण्डालिका ,सुभूति नामक भंगी,  श्वपाक नामक नीच कुल के व्यक्ति,सुजाता और आम्रपाली जैसी वेश्याओं तथा अंगुलिमाल्य  नामक दुर्दांत डाकूओं को भी अपने संघ में सम्मानजनक स्थान दिया । वैदिक व्यवस्था के कारण वर्णव्यवस्था,जातिवाद,यज्ञ,पुनर्जन्म आदि पाखण्डों के कारण जनता के अनवरत शोषण करने की प्रथा को उन्होंने बहुत कम कर दिया ।_*
             *_भगवान बुद्ध ने आज से ढाई हजार साल पहले ही ज्योतिष  की निरर्थकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिये थे । उन्होंने कहा,कि ” नक्खत्तं याति मानेत्तम अत्थो बाल उपच्चगा,अत्थो अत्थस्स नक्खत्तं किम् करिस्सन्ति तारका। “अर्थात “नक्षत्रों की गणना से मानव कल्याण को जोड़ने वाले मूर्ख और भ्रमित लोग हैं क्योंकि जो लोग अपनी उन्नति करने में स्वयं असमर्थ हैं,उनका नक्षत्र और तारे क्या करेंगे ? ” भगवान बुद्ध ने सदा मध्यम मार्ग पर चलने,संयम,परिश्रम,चित्त की एकाग्रता को ही सर्वोपरि माना है । उन्होंने सदा परिश्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है इसीलिए उनकी संस्कृति को “श्रमण संस्कृति ” भी कहा जाता है । उनका मानना था कि बगैर परिश्रम के संस्कार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। भगवान बुद्ध के मृत्युशैय्या पर होने के समय की एक घटना भी उल्लेखनीय है कि भगवान बुद्ध जब कुशीनगर में महापरिनिर्वाण की स्थिति में पड़े थे तब सुभद्र नामक एक परिव्राजक उनसे मिलने आया । भगवान बुद्ध के पास उनकी सेवा में लगे,उनके शिष्य आनन्द ने सुभद्र से भगवान बुद्ध की स्थिति से अवगत कराकर,उनसे मिलवाने में अपनी असमर्थता जाहिर की । यह बात भगवान बुद्ध ने सुन ली । उन्होंने कहा, ” सुभद्र को आने दो । वह मुझे कष्ट देने नहीं कुछ जानने की इच्छा से आया है। ” मत्युशैय्या पर पड़े सुभद्र को संबोधित भगवान बुद्ध के अंतिम शब्द थे , ” व्ययधम्मा संखारा अप्पमादेन सम्यादेथ। ” अर्थात “संसार नाशमान है,अपने लक्ष्य की प्राप्ति निर्विकार भाव से करो ” इसके बाद उन्होंने अपनी आँखें सदा के लिए  बन्द कर लीं ।_*
             *_भगवान बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में 433 ईसा पूर्व में हुआ था इस हिसाब से इस धरती से गये हुए उनको इस दुनिया से अपना नश्वर शरीर त्यागे ठीक 2454 वर्ष यानि दो हजार चार सौ तिरपन वर्ष हो गये। समय के इतने बड़े अंतराल के बावजूद उनकी कही हुई बातें आज के वर्तमान समय के वैज्ञानिक युग में भी इतनी सार्थक, समयसापेक्ष,न्यायोचित्त और जीवन्त लगतीं हैं कि लगता है कि वे अभी भी हमारे आस-पास ही कहीं अपने सार्थक,निष्पृह,विचारों से दुनिया को आलोकित कर रहे हों । उनके विचारों को बहुत बार इस देश में “निकृष्ट शक्तियों ” द्वारा सदा के लिए बारम्बार मिटा देने के कुत्सित प्रयास के बावजूद उनके उत्कृष्ट विचारों को नष्ट करने में ये “अधम शक्तियां’ “अपने प्रयास में सफल नहीं हो सकीं है । कुछ अंग्रेज भाषाविज्ञानी,पुरातात्विकों ,वैज्ञानिकों के अभूतपूर्व ,सराहनीय कार्यों की वजह से उस महान संत,भगवान बुद्ध और उनके कार्यों को राज्याश्रित करने वाले कालजयी सम्राट “सम्राट अशोक ” को भी इतिहास में विस्मृत कर देने के कुत्सित प्रयास करने वाली शक्तियों को पराजित होना पड़ा है । आज भगवान बुद्ध के समस्त मानव के कल्याण के लिए कही गई बातों की सार्थकता इस बात में निहित है कि इस विश्व के लगभग आधे अति विकसित राष्ट्र के लोग भी उनके विचारों से सहमत हैं ,तभी तो उनके जन्म स्थान “लुम्बिनी “,उनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के साक्षी “कपिलवस्तु “,उनके ज्ञानप्राप्ति के पावनस्थल “बोध गया “,उनके प्रथम उपदेश स्थल ” सारनाथ” व उनकी निर्वाणस्थली ” कुशीनगर ” आज के समय में भी इस देश और दुनिया के प्रबुद्धजनों के लिए आदर्श तीर्थस्थल बने हुए हैं । तभी तो भगवान गौतम बुद्ध द्वारा चलाए गए बौद्ध धर्म के बारे में इस दुनिया के महानतम वैज्ञानिक व लिजेंड अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक बार कहा था “केवल वैज्ञानिक धर्म बौद्ध धर्म को छोड़कर अन्य सभी शोषणकारी और पाखंडी धर्म एक न एक दिन मिट जाएंगे। “_*

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