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क्रूर भारतीय सत्ता के कर्णधार बनाम असहाय आदिवासी समाज !
( विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष)

गाजियाबाद , निर्मल शर्मा के कलम से

( विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष)

✍️🔥🔥🔥🔥🧐🔥🔥🔥🔥🔥✍️ _________________ _सुप्रसिद्ध लेखक एडविन जे हेनरी Edwin J Henry ने अपनी पुस्तक 'मेथड्स ऑफ टॉर्चर एंड एक्जेक्यूशन या 'Methods of Torture and Execution' ,जो वर्ष 1966 में प्रकाशित होकर आई थी,में विस्तार से लिखा है,इस पुस्तक में एडविन बताते हैं कि कैदियों या अभियुक्तों को जबरन जुर्म कुबूल करवाने या जवाब दने के लिए मजबूर करने का जो तरीका है,वो स्पेनिश इन्क्विजिशन या Spanish Inquisition द्वारा इस्तेमाल होने वाले तरीकों से आया है ! इसमें कई तरह के तरीके अपनाए जाते हैं,जैसे कथित अभियुक्त या आरोपी को बेंत से लगातार जोर से मारना,भूखा-प्यासा रखना,सोने न देना या शरीर की प्राकृतिक क्रियाएं जैसे मल-मूत्र त्याग करने तक से रोक देना ! वास्तविकता यह है कि स्पेनिश इन्क्विजिशन एक ट्रिब्यूनल था,जिसे स्पेन के बर्बर और क्रूर राजाओं ने अपने स्वार्थ के लिए और 15वीं सदी में कैथोलक धर्म को सख्ती से लागू करने के लिए बनाए थे ! जो लोग धर्म बदलकर क्रिश्चियन बनते थे वे लोग कोई भूल चूक न करें और कथित धर्म का विधिवत रूप से पालन करें और जो लोग इस कथित धर्म का पालन ठीक से नहीं करते थे उन्हें यह थर्ड डिग्री नामक बेहद क्रूर सज़ा दी जाती थी, ये थर्ड डिग्री की बेहद अमानवीय और राक्षसी सजा स्पेनी बर्बर सम्राटों द्वारा लगभग 300 साल तक चलाया गया !_ _अभी पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की एक अदालत ने यूएपीए या गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम ) अधिनियम मतलब Unlawful Activities ( Prevention ) Act (UAPA) के तहत अभियुक्त बनाए गए 121आदिवासियों को रिहा कर दिया है। इन आदिवासियों पर आरोप था कि उन्होंने 5 साल पहले नक्सवादियों को एक हमला करने में मदद की थी। ज्ञातव्य है कि 24 अप्रैल 2017 को सुकमा जिले के बुर्कापाल सीआरपीएफ कैम्प से 74 बटालियन के जवान दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच निर्माण हो रही सड़क को सुरक्षा देने निकले थे। जिस दौरान हुए नक्सली हमले में CRPF के 24 जवान मारे गए थे। इस हमले के बाद नक्सलियों का साथ देने के कथित जुर्म मेंराष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के जवानों ने बुर्कापाल और उससे लगे आसपास के गांवों के 121 ग्रामीणों को गिरफ्तार कर लिया था।_ _कानून का एक मूलभूत सिद्धांत है कि सौ अपराधी भले ही छूट जाएं लेकिन एक निर्दोष को सजा कभी नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन तमाम दूसरे सिद्धांतों की तरह भारत में यह सिद्धांत भी व्यावहारिक स्तर पर खरा उतरता नहीं दिखता है ! सुकमा में शक के आधार पर गिरफ्तार 121आदिवासी युवकों के मामले में भी यह कानूनी सिद्धांत खरा नहीं उतरता,क्योंकि चूंकि कथित अभियुक्तों की संख्या अधिक थी,इसलिए उन्हें पूरे 5 वर्ष में केवल दो बार ही कोर्ट में पेश किया जा सका ! और कानूनी कार्रवाई की गति इतनी धीमी थी कि उन्हें खुद को बेगुनाह साबित करने में 5 वर्ष का लंबा वक्त लग गया !_ _तमाम समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के अनुसार अब राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी यानी NIA कोर्ट ने उन आदिवासियों को दोषमुक्त करने का फैसला सुना दिया है। दंतेवाड़ा के राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी यानी NIA कोर्ट ने शुक्रवार को यह फैसला सुनाया और कोर्ट के आदेश आने के बाद शनिवार की देर शाम जगदलपुर सेंट्रल जेल में बंद इन लोगों को रिहा कर दिया गया है और शनिवार की शाम रिहा होने के तुरंत बाद इन्हें दो बसों में बैठाकर सुकमा और बीजापुर जिले में स्थित उनके लगभग 150 किलोमीटर दूर उनके गांवों की तरफ रवाना कर दिया गया।_ _इस मामले में पुलिस एनआईए कोर्ट में नक़्सलियों के समर्थक के रूप में इन 121 ग्रामीणों के खिलाफ कोई भी साक्ष्य ही पेश नहीं कर पाई। इस आधार पर 5 साल तक केंद्रीय जेल में सजा काटने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी या NIA की एक अदालत से मिले इस फैसले के बाद इन कथित अपराधियों को जेल से रिहा कर दिया गया है। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इन आदिवासी युवकों के जीवन के 5अनमोल और अमूल्य वर्ष कैद में केवल इसलिए बीत गए क्योंकि वे उस इलाके के रहने वाले थे,जहां माओवादी हमला हुआ !_ _राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षाबलों ने अगर संदेह के आधार पर इन आदिवासी युवकों को गिरफ्तार भी कर लिया तो फिर जल्द से जल्द संदेह को पुष्ट करने के लिए उसे कोर्ट में सबूत पेश करने चाहिए थे,लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई। अभियुक्तों की संख्या इतनी अधिक थी, इसलिए उन्हें 5 वर्ष में केवल दो बार ही कोर्ट में पेश किया गया और कार्रवाई की धीमी रफ्तार के कारण उनकी बेगुनाही साबित होने में 5वर्ष लग गए। इन पूरे 5 वर्षों में राज्य की सत्ता बदल गई,दुनिया के हालात बदल गए, संपूर्ण मानव सभ्यता उत्तर कोरोना काल में पहुंच गई,लेकिन 121 आदिवासियों का जीवन वहीं का वहीं जेल में सड़ते हुए अटका रहा। अब वे जेल से रिहा हुए हैं, लेकिन उनके लिए आगे के हालात कैसे रहेंगे,यह अनुमान लगाना सहज नहीं है !_ _आज से लगभग 5वर्ष पूर्व 24 अप्रैल 2017 को में बुरकापाल में नक़्सलियों ने केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल या Central Reserve Police Force या CRPF के जवानों पर घात लगाकर किए जिसे इस अचानक किए गए हमले में घटनास्थल पर ही CRPF के 24 जवान मारे गए थे। इस दु:खद घटना के बाद पुलिस ने इस घटनास्थल स्थित गांव से लगे अलग अलग क्षेत्रों से लगभग 121 लोगों को आरोपी बनाया था। इसमें तीन ग्रामीण दंतेवाड़ा के जेल में बंद थे। उनके अलावा सभी आदिवासी जगदलपुर केंद्रीय जेल में बंद थे. करीब 5 साल से जेल में बंद इन लोगों का फैसला बीते शुक्रवार यानी 22-7-2022 को जैसे ही आया इनकी रिहाई की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। गौरतलब है कि इस मामले में एक महिला को भी आरोपी बनाया गया था जो जगदलपुर जेल में बंद थी।_

एनआईए द्वारा उन्हें फर्जी फंसाया गया -जेल से रिहा आदिवासी युवा
__ _जेल से रिहा हुए ग्रामीण पदम, माड़वी और उयाम ने बताया कि पुलिस ने उनके खिलाफ फर्जी मामला बनाया था। पुलिस उन्हें घटना के एक महीने बाद किसी को रात में तो किसी को तड़के सुबह करीब 4 बजे पकडक़र ले गई और उन पर इल्जाम लगाया कि वे बुरकापाल हमले में नक्सलियों के सहयोगी थे। जेल से निकले कथित आरोपियों ने कहा कि उन्होंने उस घटना को देखा तक भी नहीं था ! राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के जवान हम सभी को तड़के सुबह नींद से जगाए ,घर से उठा ले गए थे,उन पर फर्जी आरोप लगाकर उन्हें फर्जी तरीके से जेल में डाल दिए ग्रामीणों ने कहा कि हम सभी लोग किसान हैं और अब न्यायालय ने हमें नई जिंदगी दी है। इन लोगों का कहना है कि वो वापस जाकर पहले की तरह खेती-किसानी करेंगे। इन ग्रामीणों में से कुछ ऐसे भी गरीब और बेबस ग्रामीण हैं जो 5 साल सजा काटने के दौरान एक बार भी अपने परिवार वालों से नहीं मिल पाए और अब वे 5 साल बाद अपने परिवार से मिलेंगे।_ _कुछ ग्रामीणों का कहना है कि जेल में रहने के दौरान उन्हें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। वहीं खुद को बेकसूर बताने के बावजूद भी 5 साल तक उन्हें सजा काटनी पड़ी। आखिरकार सत्य की जीत हुई और कोर्ट ने उन्हें दोषमुक्त करार दिया और अब 5 साल के बाद उनकी खुशी लौटी है और अब अपने परिवार से मिल पा रहे हैं।_ _राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षाबलों द्वारा शक के आधार पर गिरफ्तार किए गए और बिना वजह अपने जीवन के 5 वर्ष जेल में गंवा देनेवाले अधिकतर युवकों की उम्र 19से 30 वर्ष की है !इनमें से एक युवक की मौत भी जेल में हो गई। बीबीसी के मुताबिक, एनआईए के विशेष न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा, 'इस प्रकरण में उपलब्ध किसी भी अभियोजन साक्षियों के द्वारा घटना के समय मौक़े पर इन अभियुक्तों की उपस्थिति और पहचान के संबंध में कोई कथन दर्ज नहीं किया गया है ! '_ _इन अभियुक्तों के पास से कोई घातक हथियार भी नहीं मिला था। राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षाबलों द्वारा शक के आधार पर इन सारे आदिवासी युवकों पर माओवादी होने का ठप्पा एक बार लगा दिया गया,तो फिर वो आसानी से मिट भी नहीं सकता ! इन सभी लोगों की रोजी-रोटी का प्रबंध कैसे होगा,समाज में सम्मान के साथ रहने की उम्मीदें कितनी बची होंगी,ये भी किसी को कुछ नहीं पता। इन युवकों को न्याय मिला या नहीं, लेकिन इनकी जवानी के स्वर्णिम 5वर्ष अनावश्यक जेल में काटने को जरूर मजबूर कर दिया गया ! इस बात पर भी कानूनी विशेषज्ञों को अवश्य विचार करना चाहिए और यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि भविष्य में इस तरह संदेह के आधार पर गिरफ्तारियां न हों और अगर ग़लती से गिरफ्तारियां हों भी तो फैसले लेने में इतने वर्षों का विलम्ब न हों,अन्यथा गरीबों के प्रति कानूनी और इंसानियत के रूप में बहुत बड़ा अन्याय होगा !_

गिरफ्तारी के वक्त हम लोग सो रहे थे !
__ _घटनास्थल से लगभग 10किलोमीटर स्थित चिंतागुफा क्षेत्र के एक गांव बुगलपारा के रहनेवाले एक आदिवासी युवक पदम बुच ने स्थानीय पत्रकारों को बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के सुरक्षाबलों ने घटना के दो दिन बाद सुबह चार बजे के आसपास बुगलपारा नामक उनके छोटे से गांव को अचानक घेर लिया और उनके सहित चार लोगों को उठा लिया। उठाए गए लोगों में उसका भाई भी था। वह 24 अप्रैल 2017 को घात लगाकर किए गए हमले के समय घर पर सो रहे थे। पदम बुच ने कहा कि मेरा माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरे जेल में रहने के दौरान परिवार ने बहुत पैसा खर्च किया,जिसे वहन करने में वह सक्षम नहीं थे। हमें अब नहीं पता कि घर में क्या बचा है ! राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी मतलब एनआईए की तरफ से हम सभी पर यह मनगढ़ंत आरोप लगाया गया कि हम सभी बुरकापाल हमले में नक्सलियों के सहयोगी थे,जबकि हम सभी लोग किसान हैं और इस घटना को हमने कभी देखा तक भी नहीं थे,हम लोग घटना के वक्त अपने घरों में अपने सामान्य काम कर रहे थे ! शक के आधार पर गिरफ्तार किए गए इन निर्दोष आदिवासी युवकों में कुछ तो नवविवाहित भी हैं, जिन्हें साल से जेल में बंद कर दिया गया था ! कथित आरोपियों ने कहा कि 5 साल से जेल की सलाखों के पीछे रहने ने उन्हें पत्थर में बदल दिया है ! जेल से बाहर निकलते समय उनके चेहरे पर न तो कोई भाव था और न ही कुछ खास खुशी थी। उनमें से कई ने यह कहा कि वे कभी भी घात लगाकर हमला करने वाले स्थान पर नहीं गए थे,लेकिन उन्हें बिना वजह उठाकर जेल में डाल दिया गया और हम पर गलत आरोप लगाकर हमें 5वर्षों के लिए जेलों में सड़ा दिया गया !_ _छत्तीसगढ़ की जानी-पहचानी सामाजिक कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया ने बताया है कि निर्दोष आदिवासियों को जेल में बिना वजह 5 वर्ष से जेल में ठूंस कर रखा गया था ! हैरत की बात है कि इस मामले में एक आदिवासी महिला को भी आरोपी बनाया गया था ,जो जगदलपुर जेल में बंद थी ! शनिवार यानी 23-7-2022 को शाम जगदलपुर जेल से 105 लोगों को रिहा किया गया !_

भारत के गृहमंत्री श्री अमित शाह जी का महाझूठ !
__ _लेकिन दूसरी तरफ भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने इसी महीने 12 जुलाई 2022 को गुजरात के गांधीनगर में नेशनल फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी या National Forensic Science University यानी NFSU के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर रिसर्च एंड एनालिसिस ऑफ नार्कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्स्टेंसेज या Center of Excellence for Research and Analysis of Narcotic Drugs and Psychotropic Substances के उद्घाटन के मौके पर यह बड़े ही इत्मीनान से झूम-झूम कर लोगों को यह बात समझा रहे थे कि थर्ड डिग्री टॉर्चर के दिन अब लद चुके हैं ! गुनहगारों को पकड़ना है तो बेहतर इन्वेस्टिगेशन और फॉरेंसिक एविडेंस का इस्तेमाल करना ही होगा, केंद्र सरकार क्रिमिनल प्रोसीजर कोड यानी Criminal Procedure Code यानी CRPC,इंडियन पीनल कोड Indian Penal Code यानी IPC और इंडियन एविडेंस एक्‍ट या Indian Evidence Act यानी IEA में बड़े बदलाव पर विचार विमर्श कर रही है. पुराने प्रावधानों को हटाकर नई धाराओं को जोड़ने पर बातचीत चल रही है ! भारत के माननीय गृहमंत्री श्री अमित शाह जी पहले भी इस पर बोल चुके हैं कि फिल्मों में भी लोग थर्ड डिग्री की बात करते हुए सुनाई देते हैं, कोई बहुत ही घटिया फिल्म देखने चला जाए तो हॉल से निकल के कहता है क्या थर्ड डिग्री टॉर्चर था ! हमने लोगों से पूछा कि थर्ड डिग्री टॉर्चर कहने पर उनके ध्यान में क्या आता है , तो हमें ये जवाब मिले कि जेल में कैदियों को बहुत मारते पीटते हैं,उनके नाखून उखाड़ लेते हैं, उन्हें भूखे-प्यासे रखते हैं,उनकी आंखों में मिर्ची डाल देते हैं आदि-आदि !_ *_थर्ड डिग्री टार्चर क्या होता है !_* ____________ _लेकिन असल में इस थर्ड डिग्री टॉर्चर में होता क्या है ?कानून की किताबों में इसकी कोई गाइडलाइन ही नहीं है ! सभ्य समाज के लोगों को ,वकीलों को,पत्रकारों को कहीं भी इस थर्ड डिग्री टॉर्चर के बारे में लिखित में लिखा हुआ नहीं मिलेगा, किसी कोडबुक में भी नहीं मिलेगा,ये कोई टेक्नीकल टर्म ही नहीं है टॉर्चर का मतलब प्रताड़ित करना होता है, डिक्शनरी की परिभाषा के अनुसार टॉर्चर का मतलब होता है किसी को बेतरह और प्राणांतक शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाना या दर्द देना ताकि उससे कुछ जबरन करवाया या उगलवाया जा सके ! वस्तुत: भारतीय पुलिस बल द्वारा यह सज़ा के रूप में भी इस्तेमाल होता है !_

थर्ड डिग्री टार्चर के बारे में बड़े लेखकों की राय
__ _एक अन्य सुप्रसिद्ध लेखक जॉन स्वेन John Swain की लिखी किताब द प्लेजर्स ऑफ़ द टॉर्चर चेंबर या The Pleasures of the Torture Chamber जो वर्ष 1931में प्रकाशित हुई थी,में भी लगभग यही बात कही गई है कि टॉर्चर की डिग्री स्पेनिश इन्क्विजिशन से ही ली गई है ! जूलियस ग्लेरस Julius Glarus के अनुसार टॉर्चर की पांच डिग्रियां होती हैं,मसलन टॉर्चर करने की धमकी देना,कलाइयों को रस्सी से बांधकर लटकाना,टखनों में वज़न बांध कर तेज़ झटके देना जिसे अंग्रेज़ी में Squassation भी कह देते हैं,इटली में पैदा हुए एक सुप्रसिद्ध गणितज्ञ पिएरजॉर्जियो ओदिफ्रेदी Piergeorgio oOdifredi हुए हैं उनके अनुसार गणित सेकेंड डिग्री के मुकाबले थर्ड डिग्री के इक्वेशन यानी क्यूबिक इक्वेशन सुलझाने बहुत मुश्किल होते हैं , इसलिए मुश्किल टॉर्चर को थर्ड डिग्री टॉर्चर कहने के पीछे एक ये भी वजह है !_ _अमेरिका में थॉमस बायर्न्स और रिचर्ड सिल्वेस्टर नाम के दो पुलिस अफसर बहुत कड़क माने जाते थे, इनका नाम भी थर्ड डिग्री से जोड़कर देखा जाता है सिल्वेस्टर ने टॉर्चर को तीन डिग्रियों में बांटा था,प्रथम गिरफ्तारी दूसरा बिना पूर्ण तहकीकात काए जेल भेज देना और तीसरी कठोरता से पूछताछ करना !_ _वर्ष 1977 में प्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे में प्रकाशित एक लेख में यह बात विस्तृत रूप से यह बताया गया है कि थर्ड डिग्री के नाम पर भारतीय पुलिस भारतीय गरीब और निर्बल कैदियों से किस तरह के टॉर्चर के तरीके इस्तेमाल करती थी, उदाहरणार्थ 4नवम्बर 1976 को हिरमन लक्ष्मण पगर नामक एक व्यक्ति को आंध्र प्रदेश पुलिस ने नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार किया ,हिरमन ने बताया कि 29-30 नवंबर 1976 की रात को मुझे पास के लिंगापुर पुलिस कैम्प में ले जाया गया ,यहां पर 15 पुलिस ऑफिसर्स ने मुझसे पूछताछ की,उनमें से एक पुलिस वाले ने मेरे हाथों पर कील वाले बूट पहन कर चला और बाकी पुलिस वाले मुझे हर तरफ से जोर-जोर से पीट रहे थे,उसके बाद मुझे एक ‘हैदराबादी गोली खाने ’ के लिए मजबूर किया गया, 'ये एक आदमी के हाथ के साइज़ की लाठी थी जिसके ऊपर ढेर सारा मिर्ची पाउडर लगा हुआ था, मेरे कपड़े उतार दिए गए और ये लाठी मेरे मलद्वार में घुसा दी गई, मैं लगभग आठ घंटे तक बेहोश रहा, मुझे लक्षतीपेट लॉकअप में ले जाया गया और मेरा एक हाथ कोठरी की खिड़की से बांध दिया गया,मुझे इसी अवस्था में रहने को मजबूर किया गया,जहां 15 दिनों तक न तो मैं ढंग से बैठ पाया और न ही सो पाया !'_ _इसी प्रकार पश्चिमी बंगाल में अखिल बंग महिला समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की है,इसमें बताया गया कि पश्चिमी बंगाल में किस तरह महिला कैदियों के साथ दुर्व्यवहार होता था,कुछ महिलाओं को कलकत्ता के लाल बाज़ार पुलिस स्टेशन ले जाया गया, इनके कपड़े जबरन उतारवा दिए गए,उनके शरीर के कई हिस्सों पर उन्हें बुरी तरह से आग से जलाया गया, कुछ केसेज़ में उनके गुप्तांगों और मलद्वार में लोहे की स्केल डाली गई,ये भी आरोप लगे कि इंटेरोगेशन रूम में पुलिस के निर्देशों के अनुसार एक महिला अभियुक्त के साथ दूसरे क्रिमिनल्स ने लगातार रेप किया_ _लेकिन थर्ड डिग्री टार्चर को भारत के माननीय गृह मंत्री अमित शाह,जो खुद भी घोर अपराधिक पृष्ठभूमि के रहे हैं,ने इसे पुराना तरीका कह दिया है ! होना भी चाहिए,लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि भारतीय पुलिस अब थर्ड डिग्री टॉर्चर का इस्तेमाल भी नहीं करती,कई खबरें अभी भी ऐसी आती ही रहतीं हैं, जहां अभियुक्त भारतीय पुलिस द्वारा थानों में ज्यादती की शिकायत करते ही रहते हैं,इस बर्बरता और पुलिस ज्यादती को लेकर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी कई कैम्पेन चलाए हैं, जिनमें टॉर्चर को ख़त्म करने की बात कही गई !_

थर्ड डिग्री टार्चर पर एमनेस्टी इंटरनेशनल का मत
__ _एमनेस्टी इंटरनेशनल ने वर्ष 2014 में रिपोर्ट किया कि 141 देश अभी भी टॉर्चर का इस्तेमाल करते हैं ! वर्ष 1948 में यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स या Universal declaration of Human Rights ने टॉर्चर को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था,यूएन कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर पर एक समझौता भी हुआ, उस पर भारत ने भी वर्ष 1997 में साइन कर दिए थे, हकीकत यह है कि भारतीय पुलिस ने आज तक अपने पुलिस थानों में उसे स्वीकार नहीं किया है, भारतीय थानों में कथित आरोपियों पर संपूर्ण भारत में हजारों ऐसे उदाहरण हैं, जहां भारतीय पुलिस के अकथनीय थर्ड डिग्री टार्चर से बेकसूर लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं ! यानी कि भारतीय पुलिस के लिए उस समझौते को मानने की कोई कानूनी बाध्यता ही नहीं है,साइन करने का मतलब सिर्फ इतना है कि समझौते से सहमति दे दी गई है,स्वीकार करने के बाद ही इस देश के लिए उस समझौते की शर्त कानूनी रूप से मान्य होंगी,इस वक़्त भारत के ऊपर ऐसी कोई बाध्यता ही नहीं है,यही कटु सच्चाई है !_

भारतीय आदिवासी समाज के साथ यह अत्याचार कब तक चलता रहेगा ?
_ _यक्षप्रश्न यह भी है कि भारतीय सत्ता के वर्तमान कर्णधार अपने चंद पूंजीपति यारों के स्वार्थ और उनके हित के लिए इस देश के मूलनिवासियों,जंगलपुत्रों यानी आदिवासी समाज को विस्थापित करने के लिए उन्हें सुनियोजित तरीके से अपनी मिडिया से माओवादी और नक्सलाइट के नाम से धुंआधार बदनाम करके उन्हें किसी भी तरह से भारत के विस्तृत भूभाग से उन्हें हर हाल में बेदखल और विस्थापित करके उनके जंगल,जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को छीनने के लिए सुनियोजित तरीके से इस देश की सेना,पुलिस,अर्धसैनिक बलों आदि की ताकत को झोंक रखे हैं,ताकि खरबों रूपयों के इस देश के प्राकृतिक संसाधनों को अडानी, अंबानी जैसे अपने मित्रों को औने-पौने दाम में लुटाया जा सके ! इसलिए यहां के कथित न्यायालय तक भी सत्ता के कर्णधारों की जी-हूजूरी में लगे हैं ! यक्षप्रश्न है कि आखिर भारतीय आदिवासी समाज के साथ यह अमानवीय,क्रूर,वहशी व्यवहार कब तक रूकेगा !

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