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ब्यवस्था से राजद नेता का चुभती सवाल

सुप्रभात खबर , केन्द्रीय न्यूज डेस्क

हिंदी सिनेमा का यह डायलॉग हर किसी के जुबान पर रहा है। सचमुच आज चोर ज्यादा शोर मचा रहा है। पार्लियामेंट हो या विधानसभा या फिर जिला पंचायत, हर जगह आपराधिक चरित्र के माननीय सदस्यों की भरमार है। जातीय, धार्मिक उन्माद से सत्ता पर काबिज होने वाली जमात से क्या देश कभी स्वस्थ लोकतंत्र की उम्मीद कर सकता है?

यह तीसरा मौका है, जब विजय कुमार आर्य सलाखों के पीछे भेजे गये हैं। बार-बार साक्ष्य के अभाव में जेल (कोर्ट) से रिहा होने वाले विजय कुमार आर्य डकैत हैं क्या? बलात्कारी हैं क्या? हत्यारा हैं क्या? क्या जातीय और धार्मिक उन्माद से देश पर कब्जा करना चाहते हैं?

मैं जितना विजय कुमार आर्य को जाना-समझा हूं -वह सिस्टम के वैचारिक बागी हैं। इसलिये कभी हथियार के साथ पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े। सच्चे जनवादी नायक हैं, जिनका नाम मात्र से सामंतों, बेइमानों, लुटेरों, लंपटों के पसीने छूटते हैं।
एक बार फिर माओवादी थिंकर आदरणीय विजय कुमार आर्य 11 अप्रैल को पुलिस के हत्थे चढ़ गये। अर्थशास्त्र से पीजी करने के बाद दो वर्षों तक लेक्चरर की नौकरी कर चुके विजय कुमार आर्य लूटतंत्र पर आधारित भारतीय व्यवस्था के कब विरोधी हो गये, परिजनें को भनक तक नहीं लगी। मगध विवि, बोधगया अरनी बेवसाइट पर गर्व से विजय कुमार आर्य का फोटो सहित नाम रखा है।

वैचारिक संघर्ष के इस दौर में एक धारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानवतावाद के आड़ में देश को उन्माद में झोंक सत्तासीन होता है तो दूसरी धारा समाजवाद का ढोंग रच खुद पूंजीपतियों का रक्षक होता है।
सामाजिक, आर्थिक गैर-बराबरी देश को राजनैतिक आजादी में खलल पैदा कर रहा है।
आमलोग सिर्फ वोट देने के अधिकारी हैं, लेने के नहीं। जिनको वोट लेना है, वो लूटतंत्र के साथ खड़े हैं। वोट देने वाली जनता बेचारी है।

तीसरी धारा विजय कुमार आर्य जैसे सामाजिक संतों की है। माया-मोह से दूर देश के सबसे सुदूर इलाकों में अपना बसेरा बना लूटतंत्र की वर्तमान व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान करता है। जिसकी एक अपील से देश का एक बड़ा हिस्सा आंदोलित होता है। सरकार उसे लाल इलाका (रेड कोरिडोर) कहती है। उस इलाके को देशी-विदेशी साम्राज्यवादी/पूंजीवादी लुटेरे लूट रहे हैं। उस लूट को रोकने के लिये अपनी जान दे रही देश की निरीह प्राणी को सरकार माओवादियों का रक्षक/संरक्षक/नायक बता जेलों में डाल रही है। फिर भी फीनिक्स पक्षी की राख से आग की लपटें उठ लूटतांत्रिक लोकतंत्र को जलाने पर आमदा है। अमरलत्ता के पत्तों की तरह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। उसी आंदोलन से घबराकर संविधान शिल्पीकार बाबा साहेब के संविधान को ताक पर रख देश का हुक्मरान माओवादियों को देश के आंतरिक संकट के लिये बड़ा खतरा मानता है। संघर्ष के इलाके में गरीबों, मजलूमों, शोषित बंधु-बाधवों पर बेतहाशा जुर्म करता है। लेकिन सामाज्यवादी लूटतंत्र को रोकने का कोई उपाय नहीं बताता ।

आजादी के 75 वर्षों के बाद हुक्मरानों ने आम लोगों के लिये पीने का शुद्ध पानी तक मुहैया नहीं कराया। इंडिया और भारत के बीच देश को बांटा। संविधान में मिले समान अवसर की समानता का माखौल उड़ा शिक्षा, स्वास्थ्य, वाणिज्य, न्यायालय, भोजन, वस्त्र, आवास में ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी का भेद किया।

लोकतंत्र की खुबसूरती रही है नौकरशाह, नौकर होता है और जनप्रतिनिधि सेवक। लेकिन 75 वर्षों की आजादी के बाद आज नौकर, मालिक हो गया है और सेवक, राजा। इन्हीं बुनियादी सवालों पर विजय कुमार आर्य सरीखे लोग अपनी जान की परवाह ना कर बेहतर लोकतांत्रिक भविष्य के लिये बीहड़ों में बसेरा बनाये हुए हैं, जिनको सरकार सबसे बड़ा दुश्मन समझ रही है।

मैं चुनौती देता हूं भारत सरकार को-जब देश का संवैधानिक मूल्य अभिव्यक्ति की आजादी देता है तो फिर क्यों नहीं विजय कुमार आर्य सरीखे जनवादी नेताओं को भी अभिव्यक्ति की आजादी दी जा रही है? देश में हर चौक-चौराहों पर सत्संग की आजादी है। धार्मिक प्रवचन हो सकते हैं। तिकड़मी सियासी उन्मादी माहौल की चर्चा हो सकती है तो फिर जनवाद की क्यों नहीं? वर्ग-संघर्ष की क्यों नहीं? सच में, भारत लोकतांत्रिक देश है तो फिर क्यों नहीं अभिव्यक्ति की आजादी के साथ सबको अपनी बात रखने की आजादी दी जा रही है? एकतरफा संवाद और कट्टरता देश को रसातल में धकेल रहा है। फिर वह कट्टरता धार्मिक हो या जातीय कट्टरता-देश के लिये खतरा है। बेहतर माली वही होता है, जिसके बगीचे में हर तरह का फूल खिला हो। जरूरत है मिल-बैठकर सीधा संवाद करने की। तभी हम और आप बेहतर लोकतंत्र की परिकल्पना कर सकते हैं। वरना देश को खूनी लोकतंत्र में बदलने से कोई रोक नहीं सकता।

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