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29 मई 1987 को नरसंहार का मंजर, कोई जातिय संघर्ष तो कोई गांवों में सामाजिक सत्ता का संघर्ष बताया, दो घंटे तक नक्सलियों द्वारा घटना का अंजाम दिया गया लेकिन पुलिस और खुफिया तंत्र अंजान बना रहा

आलोक कुमार संपादक सह निदेशक खबर सुप्रभात के कलम से

औरंगाबाद जिले के मदनपुर थाना क्षेत्र में नक्सलियों और तथा कथित सामंतवादी प्रवृत्ति के बीच बर्चस्व के लड़ाई में जब 29 अप्रैल 1987 को दलेल चक – बघौरा गांव दहल गया था और 54 लोगों को नक्सलियों द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया था तो न केवल औरंगाबाद जिला बल्कि पुरे बिहार में सत्ता के गलियारों से लेकर प्रशासनिक महकमों में हलचल मच गया था तथा खौफ का मंजर खेतों और खलिहानों तक देखने को मिल रहा था। इस सामुहिक नरसंहार में 70 बर्ष के वृद्ध और 85 बर्ष के वृद्ध महिला से लेकर ढाई बर्ष के बचे भी नरसंहार में मारा गया था। पहले तो सरकारी आंकड़े बता रहा था कि 41 लोगों नरसंहार में मारे गए लेकिन फिर बाद में आंकड़ा बढ़कर 54 हो गया।

जानकारी के अनुसार 10 महिलाएं,15पुरुष , 16 बच्चे और एक ढाई साल का मासुम इस नरसंहार में बली चढ़ गए थे।इस घटना को कुछ लोगों ने जातिय संघर्ष का परिणाम बता रहे थे तो नक्सलियों ने कहा था कि गांवों में सामाजिक सत्ता स्थापित करने का संघर्ष है। उस समय प्रदेश में सबसे बड़ा नरसंहार और पहला नरसंहार था। इस नरसंहार के पिछे का कहानी यह था कि लगभग 40 दिन पूर्व मदनपुर थाना क्षेत्र

के छोटकी छेछानी गांव में केदार सिंह के हत्या कर दी गई थी। केदार सिंह के हत्या के आक्रोश में लगभग दो घंटे बाद मुसाफिर यादव और राधे यादव के 7 परिवार को हत्या कर दिया गया था। इस घटना के बाद से ही आशंका जताई जा रही थी कि पुरे इलाके में नक्सलियों का सक्रियता बढ़ रही है और इस नरसंहार का बदले में बड़ी घटना का अंज़ाम दिया जा सकता है। नक्सलियों का सरण स्थली कहे जाने वाले गांव चिडईयां टांड , पुरनाडीह, लालटेनगंज, वकिलगंज , चिलमी गांव के लोग जो नक्सलियों का समर्थक कहे जाते थे वैसे लोग पहले ही गांव छोड़कर कहीं चले गए थे तथा घटना के एक सप्ताह पहले मदनपुर थाना से हाफ किलोमीटर के दुरी पर लगने वाले सप्ताहीक हाट में नक्सलियों द्वारा पर्चा वितरण कर 7 का बदला 70 से लेने का घोषणा किया गया था। दलेल चक बघौरा के लोग स्थानीय मदनपुर थाना में भी नक्सलियों द्वारा बड़ी घटना का अंज़ाम देने का आशंका जताते हुए गुहार लगाया था। फिर भी स्थानीय पुलिस सतर्क नहीं हो पाई थी। खुफिया तंत्र भी पुरी तरह से असफल साबित हुई और 29 मई 1987 को रात्रि 8 बजे लगभग 700 के संख्या में नक्सलियों द्वारा नारेबाजी करते हुए दलेलचक बघौरा गांव पहुंच गए और 10 बजे यानी दो घंटे तक नरसंहार का अंज़ाम देकर आराम से निकल गए। इस नरसंहार में दलेलचक गांव निवासी गंगा देव सिंह, धनेश्वर सिंह, राजेश्वर सिंह का परिवार तथा बघौरा गांव निवासी रामअधिर सिंह, कामता सिंह, कामता सिंह, गया सिंह, लखन सिंह के परिवार ज्यादा नरसंहार के शिकार हुए। एक चार साल का बच्चा उदय प्रकाश बच गया वह गांव में हंगामा देख बिस्तर में लिपट कर कहीं छिप गया था। घटना के 3 घंटा बाद मदनपुर पुलिस महज चार किलोमीटर दुरी तय कर घटना स्थल पर पहुंचीं और जिला पुलिस मुख्यालय से जिला पुलिस महज 25 किलोमीटर दुरी तय कर 7 घंटा बाद पहुंची और डीएम अगले दिन 8 बजे पहुंचे। इस घटना का अंज़ाम देने में शामिल नक्सलियों का नेतृत्व करने वाले नक्सली नेताओं का नाम संजय दुसाद,मनई दुसाध, बंशी यादव, चन्दु यादव के रूप में सामने आया। उस वक्त प्रदेश के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे और विधानसभा में नेता विरोधी दल कारपुरी ठाकुर थे। कारपुरी ठाकुर उस वक्त संयोगवश दिल्ली में थे। घटना स्थल पर 30 मई यानी दुसरे दिन नेता प्रतिपक्ष कारपुरी ठाकुर और मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे पहुंचे। दिल्ली से नेता प्रतिपक्ष कारपुरी ठाकुर मुख्यमंत्री से एक घंटा पहले पहुंचे। नेता प्रतिपक्ष कारपुरी ठाकुर ने घटना स्थल पर ही सरकार को नकारा कहा और मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे नरसंहार में मारे गए लोगों के संगे सम्बंधी व परिजनों को दस – दस हजार रुपए मुआवजा राशि देने का घोषणा किए। इसके अलावा औरंगाबाद और जहानाबाद मिलाकर पुलिस रेंज बनाने का भी घोषणा किए लेकिन आज तक पुलिस रेंज नहीं बन सका। पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर जग्रनाथ मिश्रा ने घटना के बाद कहे कि बर्तमान मुख्यमंत्री को एक दिन भी सत्ता में बने रहने का हक नहीं है। उक्त घटना से यह कहा जा सकता है कि नक्सलियों का पैठ लालू प्रसाद के सरकार में नहीं बल्कि बिंदेश्वरी दुबे सरकार से ही बनने लगा था।

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