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जब मैं मेजर ध्यानचंद से मिला..!

गाजियाबाद से नरेंद्र सिंह एवं निर्मल शर्मा

_वर्ष 1978 के मध्य की सर्दी थी और मैं झाँसी में ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कर रहा था। जब मैं झांसी की रानी का किला में घूम रहा था,अचानक मेरे मन-मष्तिष्क में यह विचार आया कि महान हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद भी यहीं रहते हैं। एक विराम के बाद मुझे याद आया कि वह आजकल अपने खराब स्वास्थ्य के कारण चर्चा में हैं…और मैंने इस किंवदंती वाले महान व्यक्तित्व से मिलने की ठानी।_
             _मैंने किले के गाइड और अन्य लोगों से उनके आवास के बारे में पूछताछ की लेकिन उन्हें उनके ठिकाने की कोई जानकारी नहीं थी !_ *_फिर मैं झांसी के रेलवे स्टेशन गया और स्टेशन मास्टर साहब से उनके बारे में पूछा ! वह इतने अच्छे इंसान थे कि उन्होंने न केवल मेरा मार्गदर्शन किया बल्कि मेरे साथ एक व्यक्ति को भी सही रास्ता दिखाने के लिए मेरे साथ भेज दिया !_*
               _हमने एक ताँगा किराए पर लिया ताकि हम सिपरी इलाके में स्थित उनके घर तक आसानी से पहुंच सकें।  चुप्पी तोड़ने के लिए मैंने अपने साथ बैठे व्यक्ति से पूछा, “आप मेजर ध्यानचंद से कई बार मिले होंगे ?” उसने उत्तर दिया, “नहीं, बिल्कुल नहीं। ” उस व्यक्ति की टिप्पणी ने मुझे चौंका दिया और मैं आश्चर्य से अवाक रह गया ! हालाँकि वह उन्हें जानते थे लेकिन कभी नहीं मिले थे। किसी तरह हम एक कॉलोनी में पहुँच गए और मेरे साथ आने वाले आदमी ने मुझे यह कहकर छोड़ दिया कि उसे कोई और जरूरी काम है और मैं फिर अकेला खड़ा रह गया..!_
               _इधर-उधर देखने के बाद मैंने देखा कि सामान्य क्वाटरों की गली के के दूर के एक छोर से एक साधारण सा आदमी आ रहा है,_*_मैंने उस व्यक्ति से विनम्रता से मेजर ध्यानचंद के आवास के बारे में पूछा। उन्होंने एक प्रश्न में उत्तर दिया, ‘क्या काम है ? ‘ मैंने कहा, “मुझे कोई काम नहीं है, लेकिन मैं उन महापुरुष से मिलना चाहता हूं। ” “अच्छा ! आप कहां से आए हो ? ” मैंने फिर जवाब दिया, “मैं देहरादून से आया हूं। “उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, और सहसा ही कहा, “मैं ही ध्यान चंद हूं !! ” और उन्होंने अपने घर की ओर आगे बढ़ने हेतु उंगली से इशारा किया।_*
               *_एक बहुत ही साधारण व्यक्ति,मध्यम कद-काठी का,गहरा साँवला चेहरा,कुछ सफेद बालों के साथ सिर लगभग गंजा सा,एक साधारण पुलओवर, बहुत ही साधारण कपड़े और पैरों में ‘हवाई चप्पल ‘। हालाँकि मैंने अखबारों और पत्रिकाओं में उसकी तस्वीरें देखी थीं, लेकिन मैं कबूल करता हूँ कि पहली बार में, मैं उन्हें पहचान नहीं पाया और मुझे लगा कि यह व्यक्ति मुझे बेवकूफ बना रहा है। वह उनकी बेपनाह सादगी थी !_*
                _वह मुझे अपने घर के पहले कोने में स्थित एक छोटे से कमरे में ले गये, जिसमें बहुत से पुरस्कार और ट्राफियां, सेना के रंग और सम्मान, हॉकी स्टिक और गेंद,ढाल और कप,तस्वीरें और उद्धरण और क्या नहीं… कोई जगह ख़ाली नहीं थी। किसी और चीज के लिए दीवारें खाली नहीं थीं। लेकिन यह सब देखकर मुझे सहज महसूस हुआ कि मैं आखिर में सही जगह पर पहुँच गया हूं।_
              *_मेरे और मेरे व्यवसाय के बारे में पूछने के बाद,वह खुश हुए और अपने जीवन की कहानी सुनाने लगे। हॉकी के लिए प्यार और भारतीय सेना में उनकी शुरुआत कैसे हुई आदि आदि। हालांकि वे देश में खेलों की स्थिति से खुश नहीं थे, लेकिन उन्हें कोई शिकायत भी नहीं थी। मैं अपने आप को सौभाग्यशाली महसूस कर रहा था कि मैं ऐसे महान व्यक्तित्व से मिला, जिसके किस्से हम पत्र-पत्रिकाओं में,अपने शिक्षकों और हॉकी कोचों से सुनते थे !_*
              _बैठक के बाद मैंने उनसे एक तस्वीर के लिए अनुरोध किया, उन्होंने अपने बेटे अशोक को मेरे छोटे से ओलंपस कैमरे से लेने के लिए बुलाकर मुझे अनुग्रहीत किया। मेरी पत्नी इस महान व्यक्ति की तस्वीरों को खोजने के लिए मेरे फोटो बॉक्स को ही पूरी तरह से उलट-पलट दिया था, जिसे मैं इसके साथ पोस्ट कर रहा हूं। इस नेक खोज के लिए समय निकालने के लिए मैं श्रीमती सुधा देहरान को भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।_
              *_3 दिसंबर 1979 को जब मैंने एम्स नई दिल्ली में उनके दुखद निधन की खबर रेडियो पर सुनी, तो इस महान आत्मा से मुलाकात को याद करते हुए मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े,जिसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूल सकता।_*
              *_एक ऐसा महान व्यक्तित्व जो करोड़ों और करोड़ों भारतीयों के दिलों में एक योग्य स्थान रखता है,भारत के इस सच्चे सपूत ने हमें दुनिया भर में गौरवान्वित किया।_*
              *_तो आज ‘राष्ट्रीय खेल दिवस ‘पर मेजर ध्यानचंद को ‘भारत रत्न ‘ से क्यों न सम्मानित किया जाये !!!_*

          

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