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लोकतांत्रिक जन पहल ने किया सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप करने का मांग

केन्द्रीय न्यूज डेस्क खबर सुप्रभात समाचार सेवा

धर्म परिवर्तन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की अवांछित टिप्पणी पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से हस्तक्षेप की मांग: लोकतांत्रिक जन पहल  धर्म परिवर्तन के मामले में अभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक बेंच के द्वारा एक मुकदमें के संदर्भ में यह टिप्पणी की गयी कि धर्म परिवर्तन के प्रयासों को नहीं रोका गया तो एक दिन बहुसंख्यक हो जाएंगे अल्पसंख्यक। यह टिप्पणी निराधार, तथ्यों से परे तथा संविधान और लोकतंत्र के खिलाफ है। उक्त बातें लोकतांत्रिक जन पहल बिहार के संयोजक सत्य नारायण मदन ने आज यहां जारी एक बयान में कहा है और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डॉ जस्टिस डी वाई चंद्रचूद से अपील की है कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणियों पर आवश्यक हस्तक्षेप करें । उन्होंने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के द्वारा मुकदमे में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की दृष्टि से विचार करना बेहद ख़तरनाक है । उल्लेखनीय है कि पहले भी कई गैरजरूरी टिप्पणियां प्रकाश में आई हैं जो न्यायालय की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाने वाली रही हैं।

लोकतांत्रिक जन पहल का मानना है कि न्यायालय को इस प्रकार की राजनीतिक टिप्पणी से बचना चाहिए । न्यायालय का दायित्व किसी सुनवाई के दरम्यान पक्के तौर पर संबंधित पक्षों की जबाबदेही तय करना है न कि घटना का सामान्यीकरण करना । धर्म परिवर्तन पर वैचारिक टिप्पणी करना न्यायालय के दायरे में नहीं आता है।

उन्होंने कहा कि जब से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आएं हैं, अबतक जनगणना नहीं कराई गई है। निर्धारित समय के मुताबिक 2021 में जनगणना होना था लेकिन जानबूझकर कर इसे टाला गया है। क्योंकि सरकारी दावों के झूठे साबित होने का डर मोदी सरकार को है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण – 6, की जो सरकारी रिपोर्ट आयी है उसके आधार पर भी अल्पसंख्यकों की आबादी दर के जो तथ्य सामने आए हैं वे इस बात को साबित नहीं करते कि मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों की आबादी दर से कोई खतरा है। देश और दुनिया के किसी प्रतिष्ठित शोध संस्थानों ने जिन्होंने भारत में आबादी के संतुलन पर शोध किया है उसकी एक भी रिपोर्ट नहीं है जो इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी को सही ठहराता हो। सरकारी अथवा गैरसरकारी स्तर पर तत्थ विपरीत हैं तो केवल धारणा के आधार पर किसी घटना विशेष का सामान्यीकरण करना न्यायिक दृष्टि से ग़लत है।

श्री मदन ने कहा कि अभी हाल में प्रसिद्ध अभिनेता और सांसद श्री शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी ने एक मुस्लिम लड़के से शादी की। हम जानते हैं कि अनेक नेता हैं जिसमें भाजपा के नेतागण भी शामिल हैं, उनके बेटे -, बेटियों ने मुसलमान लड़के – लड़कियों से शादी की है और उसमें धर्म परिवर्तन भी हुआ है, तो क्या इन घटनाओं का सामान्यीकरण करना सही होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में गलत दृष्टिकोण अपनाया गया है।

श्री मदन ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 25 का विश्लेषण करते हुए गलत और परस्पर विरोधी व्याख्या की है और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को पूरी तरह खारिज किया है। यह न केवल वैचारिक दृष्टि से बल्कि संवैधानिक दृष्टि से भी ग़लत है।

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 के उनके विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि आस्था कोई अपरिवर्तनीय और जड़ चीज है। यह बदलती नहीं है। जबकि हम जानते हैं कि एक आदमी जो कल तक मूर्ति पूजक था, आर्य समाजी या अन्य विचार अपनाने के बाद मूर्ति पूजा का प्रबल विरोधी है। संघी हिन्दुत्व के झंडाबरदार सावरकर बीफ खाने के विरोधी नहीं थे। सच यह है कि आस्था एक गतिशील बहुआयामी अवधारणा है जो अपना अर्थ संदर्भों से ग्रहण करती है। वह संदर्भ इतिहास, संस्कृति, धर्म, आधुनिकता और क्रांतिकारी विचारों का हो सकता है। आस्था का आधार तर्कहीन, तथ्यहीन और अन्तर्विरोधी भी हो सकता है तथा तर्कपूर्ण, तथ्यात्मक और व्यवस्थित विचार भी।

उन्होंने कहा कि हमारे संविधान में सर्वोच्च संवैधानिक मूल्य है, स्वतंत्रता जिसका वैचारिक स्वतन्त्रता एक अभिन्न हिस्सा है। स्वतंत्रता की एक न्यायोचित मर्यादा भी मानी गई है। जैसे धर्म एक विचार है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति व समूह अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है ,तो उसे इस विचार परिवर्तन की स्वतंत्रता का अधिकार है । यह लोकतंत्र और संविधान दोनों दृष्टि से गलत नहीं है। लेकिन कोई दबाव में धर्म परिवर्तन करता है,तो यह ग़लत है। लेकिन यहां एक बात और समझ लेना चाहिए कि दबाव में धर्म परिवर्तन करने को मजबूर किया गया,यह बात भी पीड़ित व्यक्ति को कानून के समक्ष स्वयं कहना और प्रमाणित करना होगा। इसलिए धर्म परिवर्तन पर वैचारिक टिप्पणी करना न्यायालय के दायरे में नहीं आता है। इसके लिए राजनीतिक तौर पर जो लोग भय, घृणा, हिंसा और झूठ फैलाते हैं, वे गलत करते हैं ।