बौंसी(बांका): मनोज कुमार मिश्र
भारत के 22 पर्वतों में से एक है मंदार पर्वत
इन्हीं 22 पर्वतों में 18 पुराण और चार वेद अंकित हैं।
मंदार शिखर पर दो मंदिर हैं एक बड़ा और एक छोटा ।बड़े मंदिर में 6 पद चिन्ह हैं , हिंदू सनातनी श्रद्धालु पद चिन्हों में दो को विष्णु दो को लक्ष्मी और 2 को सरस्वती की आस्था से जोड़कर मंदार शिखर का आरोहण करते हैं।संस्कृत के विद्वान कवि कालिदास ने

कुमारसंभवम् में भी लिखा है। भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन साहब ने भी इतिहास में शिखर पर स्थित प्राचीन मंदिरों के विषय में चर्चा की है। इधर जैन धर्मावलंबी इस मंदिर को बारहवें तीर्थंकर बासुपुज्य का तप कल्याणक मानते हैं, वही हिंदू जन भगवान के चरण चिन्हों की पूजा कर अपनी आस्था जताते हैं

। क्योंकि इस पर्वत की महत्ता 33 करोड़ देवी देवताओं की कथा से जुड़ी है और पूर्ण पर्वत पर असंख्य देव देवियों के मंदिर गुफा जल कुंड भग्नावशेष हैं। इसलिए लोगों के लिए अनायास ही आस्था का बड़ा केंद्र बन गया है ।1573 ईस्वी में काला पहाड़ आक्रमण से पूर्व भगवान मधुसूदन की प्रतिमा शिखर मंदिर में अवस्थित थी, कालांतर में बौसी नामक नगरी में मंदिर बनवा कर स्थापित किया गया। काफी दिनों तक भगवान की मूर्ति को अन्यत्र छिपाकर रखा गया । 1756 में जैनियों का आगमन हुआ और जमींदारों से मिलकर दोनों मंदिरों पर अपना अधिकार कर लिया। शिखर मंदिर में विष्णु चरण चिन्ह के होने की मान्यता से जुड़ी प्रमुख कथा यह है कि मधु और कैटभ दोनों ने भगवान से वर मांगी थी कि मेरे मोक्ष के बाद मेरे सिर के ऊपर आपके श्री चरण का स्पर्श होता रहे यही व कृपा से मधु और कैटभ के मस्तक पर मंदार को रखा गया जिस पर अपना चरण चिन्ह कर दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे गया में गयासुर को दावे रखने के लिए विष्णु पाद है । इसी काल में मंदार शिखर पर 6 पदों की पूजा होने लगी त्रेता युग में श्री राम के द्वारा भगवान की प्रतिमा स्थापित कर दी गई उक्त मंदिरों में भगवान की पूजा होने लगी और दुनिया में मंदार क्षेत्र को मधुसूदन नाम के नाम से जाना जाने लगा । पुरातन काल में पर्वत पर भगवान की पूजा अर्चना काफी धूमधाम से होती थी ।1907-08 ईस्वी में सबलपुर ड्योढ़ीदार से दोनों मंदिर पट्टे पर लेकर बाद में हिंदू मंदिर को तोड़कर हिंदुओं के सारे साक्ष्य मिटा दिए गए और पूर्णरूपेण मंदिरों पर अधिकार कर लिया गया। उस समय अंग्रेजी हुकूमत के सरकारी अफसरों ने भी हिंदुओं को डरा धमकाकर जैनियों का समर्थन किया । हिंदुओं के इस पवित्र स्थल पर जैनियों के द्वारा नग्न मूर्ति स्थापित कर दिया गया ।उस दौर में कई साधु-संतों पर फौजदारी मुकदमा भी प्रताड़ित किया गया था ।खैर जो भी हो इतिहास की सच्चाई तो करोड़ों वर्ष के बाद भी उसी स्वरूप में लिखी गई है अब दोनों समुदाय में सौहार्द कायम है और मंदार के विकास के प्रति दोनों ही कटिबद्ध है । जब मंदार काशी के समतुल्य बन गया तब मंदार क्षेत्र पर कभी अंगराज लोमपाद राजा ने राज किया जिसके कुलगुरू थे दीर्घतमा, यह अयोध्या नरेश दशरथ के समकालीन थे। दीर्घतमा के पुत्र धन्वंतरि हुए जिन्होंने आयुर्वेद और अमृत का आविष्कार किया था देवताओं सहित कई विज्ञान धनवंतरी से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी इसमें प्रयाग के अत्रि मुनि के पुत्र चंद्रमा भी थे। चंद्रमा की प्रतिभा को देखकर सभी देवों ने उन्हें आचार्य पद देकर मंदार प्रवास करने को कहा चंद्रमा की चचेरी बहन श्री लक्ष्मी का विवाह विष्णु से होने के कारण मंदार वासी लक्ष्मी को माता एवं चंद्रमा को मामा कह कर पुकारने लगे । यही संदेश आज विश्व में प्रसारित हो गया धनवंतरी के पौत्र दिवोदास थे जो शिवभक्त और आयुर्वेद के महान आचार्य थे ।आज भी दिवोदास की लिखी हुई आयुर्वेदा संहिता यूनान जर्मनी कंबोडिया जैसे देशों में पढ़ाई जाती है । एक बार देवदास काशी पहुंचे और शिव कृकृपा हेतु तप करने लगे दिवोदास की तपस्या से शिव प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा दिवोदास ने उनसे काशी का अतुल साम्राज्य मांग लिया भगवान विश्वनाथ ने तथास्तु कहकर काशी छोड़ दी और महेंद्र की विनती पर मंदार चले आए यहीं पर उन्होंने मोक्षदायिनी शिवलिंग की स्थापना कर एक दूसरी काशी बसाई । ऐसा करते ही काशी को छोड़ मोक्षदायिनी देवी मंदार पर आ गई काशी में मोक्ष भटकने लगा । मंदार शिव भक्तों से महिमामंडित होने लगा यहीं पर शिव माता सती के साथ में रहने लगे। अब तो दुनिया के शिव भक्तों के लिए मंदार ही काशी बन गया 33 करोड़ देवी देवताओं के साथ भगवान मधुसूदन ब्रह्मा इंद्र यक्ष गंधर्व किन्नर की कृपा से ही मंदार आलोकित हो उठा ।शिव के आगमन के साथ ही मंदार का श्मशान भी जागृत हो उठा न काशी न गया और न गंगा जाने की जरूरत है मनुष्य का अंतिम काल इसी क्षेत्र में बीतने लगा पितरों का पिंडदान भी यहां मोक्षदायी हो गई। पितृ भक्त श्रवण कुमार की हत्या का पाप राजा दशरथ पर इतना भारी था कि दुनिया का कोई भी तीर्थ मुक्त नहीं कर सका तब अंत में मंदार तीर्थ में उनका श्राद्ध भगवान श्रीराम ने किया तभी दशरथ को मुक्ति मिली। इन्हीं कारणों से श्रीराम मंदार पर आए और पिंडदान कर सूर्योपासना भी की थी मंदार शिखर पर विश्वरूप मधुसूदन की प्रतिमा भी स्थापित किया था स्कंद पुराण में ऐसा ही वर्णन है। काशी विश्वनाथ का लिंग स्थापित कर भगवान शिव मंदिर से काशी लौट गए इसी लिंग का दर्शन कर भगवान मधुसूदन अपना अहोभाग्य समझते हैं उसी दिन से वैद्यनाथ बासुकीनाथ और मंदार काशी विश्वनाथ से घिरे इस क्षेत्र को त्रिकोण क्षेत्र कहते हैं । त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री श्री राम अपनी भार्या जानकी के साथ यहां पधारे थे उन्होंने नरेश कहकर मंदार पर आरोहण किया था उन्होंने इसी पर्वत के एक जलकुंड में सूर्योपासना का षष्ठी व्रत भी किया था जो अब सीताकुंड के नाम से जाना जाता है । प्राचीन काल में यह क्षेत्र मणि माणिक्य रत्न जड़ित स्वर्णमय कलशों से विभूषित प्रासाधनों मंदिरों से भरा था शायद तभी इसे सृष्टि निर्माण स्थली की संज्ञा दी गई है । आधुनिक इतिहासकारों सहित सैकड़ों विद्वानों ने मंदार के महत्व का उल्लेख किया है महाभारत के भीष्म पर्व सर्ग में मंदार वासिनी सिद्ध सेनानी देवी दुर्गा एवं अर्जुनप्रोक्त स्तुति की चर्चा की गई है । मंदराचल शिव की निवास स्थली भी है अद्भुत रामायण में बाल्मीकि ने मंदार से शिव को उठाकर लंकापुरी लिए जाने की चर्चा की है जिसे मधुसूदन कृपा एवं पेट में गंगा समा जाने की घटना से उत्तर शिवलिंग को देवघर हरेला नामक स्थान पर रख देने की चर्चा भी मंदार से जुड़ा है । देवघर मंदिर का निर्माण भी विश्वकर्मा द्वारा मंदार की समतल शिलाओं को काटकर किया गया इसका प्रमाण देवघर शिव मंदिर के पूर्वी दरवाजे पर उत्कीर्ण शिलालेख से ज्ञात होता है । बाल्मीकि रामायण रामचरितमानस स्कंद पुराण विष्णु पुराण श्रीमद्भागवत पुराण महाभारत गरुड़ पुराण शुद्ध पुराण शिव पुराण शतपथ ब्राह्मण अमरकोट कुमारसंभवम् एवं चैतन्य चरितावालि सहित कई ग्रंथों में मंदराचल का वर्णन है। मंदार का अतीत समुद्र मंथन एवं मधु कैटभ वध की गाथा से जुड़ी है। सृष्टि के आरंभ में तीसरे मनु तामस के काल में राजा बलि एवं देवराज इंद्र के नेतृत्व में क्षीरसागर के मंथन का निर्णय हुआ ।मथानी के रूप में मंदार को एवं रज्जू के रूप में बासुकी नागराज को चुना गया मंथन के दौरान मंदार डूबने लगा तब भगवान नारायण कुर्म अवतार धारण कर मंदार को अपनी पृष्ठ पर आधारित कर मंथन कार्य संपन्न कराया । दूसरी कथा के अनुसार भगवान नारायण महामाया के साथ जल में शयन कर रहे थे तभी उनके कर्ण मैल से दो बलशाली दैत्य मधु और कैटभ उत्पन्न हो गए भगवान ने विराट रूप धारण कर अपनी जंघा पर मधु एवं महामाया ने कैटभ के सिर को सुदर्शन चक्र से काट डाला मधु के सिर पर मंदार और कैटभ के सिर पर जेठौर पर्वत स्थापित कर दिया । तब से विष्णु भगवान मधुसूदन के नाम से विख्यात हुए और महामाया कैटभनासिनी कहलाने लगी।
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